ओबरा | विपिन चौधरी की हरियाणवी कविता
शिक्षा के प्रसार के लिए नागरी लिपि का सर्वत्र प्रचार आवश्यक है। - शिवप्रसाद सितारेहिंद।

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ओबरा (काव्य) 
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Author:विपिन चौधरी


जद ताती-ताती लू चालैं
नासां तैं चाली नकसीर
ओबरे म्ह जा शरण लेनदे
सिरहानै धरा कोरा घड़ा
ल्हासी-राबड़ी पी कीं
कालजे म्ह पडदी ठंड

एक कानीं बुखारी मह बालू रेत मिले चने
अर दूसरे कानीं, गुड़ भरी ताकी
गुड़ नैं जी ललचाया करदा
अर दादी धोरै रहा करदी ताकी की चाबी
सारी दुपहरी ओबरे म्ह काटया करदे
स्कूल का काम भी करा करदे ओडै
फेर सोंदे खरड़-खरड़

ओबरे की मोटी कांध
लिप्या-पोता फर्श
कांधां छपे मोर -मोरनी
छातां पड़ी कड़ी शहतीर
तपदी गर्मी चाल्या करदी लू

रोटीयां का छीक्का भरा
ल्हासी भरी बिलौणी
चनां की चिटनी कुटी
ना कोए पंखा ना बीजली का खर्चा
ऊकडू बैठ खांदे रोटी

मण आजकाल की बात न्यारी
ओबरा ढाह कीं बणाया घर
सबके कमरे न्यारे-न्यारे

बिजली जावै घड़ी- घड़ी
पसीनां के पत्ल्हाने छूट रहे
जक पड़ी पेडै ना मादी सी
ओबरा तूं याद आया घड़ी-घड़ी.

ओबरा ढाह क गर्म होया घर
गर्म हुई सारयां की तासीर
ग्लोबल वार्मींग के झमेले म्ह
उलझे सारे गरीब-अमीर
पुराणी सोच पुराणी बात
घूम-फीर के फेर आणी
वास्तुकला का बहाना बण क
ओबरे नैं दिन आवनेगे फेर

-विपिन चौधरी
ईमेल: vipin.choudhary7@gmail.com

 

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