गूठी - आशा खत्री लता की हरियाणवी कहानी | A Haryanvi Story by Asha khatri Lata
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गूठी | हरियाणवी कहानी  (साहित्य) 
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Author:आशा खत्री 'लता' | Asha Khatri 'Lata'

कुंतल नै पैहरण का बहोत शौक था। टूमा तैं लगाव तो लुगाइयां नै सदा तैं ए रहा सै। अर उनमैं भी गूठी खास मन भावै, क्यूंके परिणयसूत्र में बंधण की रस्मा की शुरुआत ए गूठी तैं होवे सै। यो ए कारण सै अक गूठी के साथ एक भावनात्मक रिश्ता बण ज्या सै। कुंतल की गैलां भी न्युएं हुआ। ब्याह नै साल भर हो ग्या था फेर भी वा अपनी सगाई आली गूठी सारी हाणां आंगली मैं पहरे रहती। चूल्हा- चौका, खेत-क्यार हर जगह उसनै जाणा होता। गोसे पाथण तैं ले कै भैसां तैं चारा डालण ताहीं बल्कि खेतां मैं तै लयाण ताहीं के सारे काम उसनै करणै पड़ै थे। यो ए कारण था अक उसकी सास ने उसतैं कई बार समझाया भी के छोटी सी गूठी, आंगली तैं कढक़ै कितै पड़ ज्यागी। पर कुंतल सास की बात नै काना पर कै तार देती। बस कदे- कदाए उसनै चून ओसणणां पड़ता तै उतार कै एक ओड़ा नै धर देती और हाथ धोते एं फेर पहर लेती।

एक दिन जब सांझ के टैम सबके रोटी खाये पाछै, कासण मांजकै कुंतल साबुन तैं हाथ धोण लागी, तै उसका काळजा धक तैं रह गया- हाथ तैं गूठी गायब थी। उसनै घर में आडै़-उडै़ खूब टोही पर कितै ना दीखी। गूठी खू जाण के डर तैं उसनै आधी रात ताहीं नींद बी ना आई। तडक़ैं उठते एं डांगरां की खोर में, अर इसी ए दूसरी जगहां पै उसनै गूठी खूब ढूंढ़ी। खेत मैं भी वा न्यून-न्यान निगाहें दौड़ाकै देखती रही पर छोटी सी गूठी ना मिलनी थी सो ना मिली। हाँ उसकी इन चौकन्नी नजरां नै ताड़ कै उसका पति देशराज उसतैं इतना जरुर पूछ बैठा-‘के ढूंढ़ सै कुछ खो गया के?'

‘‘कुछ ना'' वा आवाज मैं बोली।

‘‘ना, कुछ तै बात सै जो तू बार-बार कबै न्यून-कबै न्यून देखण लाग ज्या सै''

देशराज की बात सुनकै उसने सारी बात बता देण में ए भलाई समझी अर बोली-‘‘लागै सै मेरी गूठी खूगी''

‘‘गूठी खूगी? कितै काढ़ कै तै ना धर दी? कद तै ना मिल री?''

‘‘मनै तै काल रात नै हाथ धोते हाणा बेरा पाट्या अक मेरी
आंगली मैं गूठी कोन्या।''

‘‘जरुर काल ए लिकड़ी होगी। याद कर काल इसा के के काम करा था जब तनै गूठी तारणी पड़ी हो।''

देशराज की बात सुनकै कुंतल ने दिमाग पै जोर डाला तै याद आया अक उसनै काल तडकैं ए चून ओसणा था...हो ना हो गूठी उड़ै रसोई मैं रहगी हो... पर उसनै तै याद आवै जणू उसने हाथ धोकै अंगूठी पहरी हो, फैर भी गूठी कितै और ना मिलण की गुजांयश देख कै उसकी या धारणा पक्की होती गई अक गूठी जरुर चून ओसणती हाणं रसोई मैं ए रहगी थी। घरां आकै दोनों बीर-मर्दां नै पूरी रसोई छाण मारी, पर गूठी ना मिली। इसे मैं सांझ ताहीं गूठी गुम होण की बात पूरे परिवार तांही पहोंचगी। रसोई तो सारे टैम सास के ए हवाले रह सै। ज्यांतै कुंतल के मन में सासु ए संदिग्ध बण गी। न्यूनै सासु नै भी पूरा छोह आ रया था, अक बार-बार नसीहत दीये पाछे भी बहू नै लापरवाही करकै गूठी खो दी।

ऊपर पै बहू नै ‘घर तैं गूठी गई तै गई कित' जिसी बात मुंह तह काढ़ के सासु रामदेई के दुखी दिल पै करड़ी चोट मारी, तै रामदेई नै भी पूरी कडुआहट तैं जबाब दिया-‘जिसके हाथ तैं जा सकै सै बहू उसके घर तैं जाते के वार लागै सै अर फेर तू तो घर-घेर, गितवाड़ा, खेत क्यार सब जगहां काम करै'। बातां-बातां मैं बात बढ़ती गई। सास बहू के इस वाद-विवाद में बेटे नै पहल्यां माँ का पक्ष लिया पर धीरे-धीरे उसकी बदलती आस्था नै बहू का पलड़ा भारी कर दिया। बड़ी बहू बापणे पीहर गई थी और छोरियां आपणै- आपणै सासरै। रामचंद मूक बणा तमाशा देखता रहा पर उसके मन में भी या बात घर कर गी अक गूठी घर तैं, वो भी रसोई क्वहां तैं, बाहर का कूण उठा सकै सै?

उसनै भी रामदेई पै थोड़ा-थोड़ा शक होण लाग ग्या, हालांकि चालीस बरस के साथ मै उसनै रामदेई की नीयत पै कदे भी शक करण का मौका नहीं मिल्या था। फेर रामदेई धोरै टूमा की बी कोए कमी ना थीं, बल्के उसनै तो छोरयां के ब्याहां मैं आपणी टूमा मैं तै ऐं दोनूं बहुआं की टूम खुद कहकै बणवाई थी, अर इब बी कुछ टूम रामदेई धोरै बच री सैं जिनका बहू बेटियां मैं बंटवारे के सिवाय कोई दूसरा उपयोग उसकी खातर ना बचा था।

कहासुनी तै हो ए रही थी, चाणचक देशराज सीधम-सीध बूझ बैठा ‘माँ, जै तने कितै न्यून-नान धर दी हो तो इब बी बता दे...कोई बात ना...भूल-चूक हो ज्याआ करै सै।' बेटे की मंशा भांप बूढ़ी रामदेई के तन-बदन में आग लाग गी-‘मेरे तैं के पूछै सै। वा जाणे उसतैं पूछ जिसके हाथ में थी।'

‘‘'मैं ना भूलती तै तू के ठा सकै थी? गलती तै मेरी ऐ सै, पर मन्नै के बेरा था, घर तैं ए चीज न्यूं गायब हो ज्यागी।' बहू ने रोंतड़ी आवाज मैं घूंघट मैं कै तीर चलाया अर सुबकाण लागी। बात इतणी बढग़ी अक बेटे-बहू की तैं आंगली ए उठी थी, रामचंद का तै हाथ भी उठ गया। रामदेई जड़ होगी।

एक गूठी के पाछे सास-बहू, माँ-बेटा, बीर-मर्द के रिश्ते अपणी मर्यादा खो बैठे थे। रामदेई खातर या घटना, घटना नहीं, बहुत बड़ा हादसा थी। बेटा तो बहू के आते ए पराया हो ज्या सै, पर आडै तै अपना मर्द भी कलंकित करण लाग रहा था। उस दिन पाछै रामदेई ने बस मौन साध लिया। बहू बेटे की बात का तै वा छोटामोटा जवाब दे बी देती, पर रामचंद तैं तैं, उसने कती बोलचाल बंद कर दी।

बड़ी बहू के पीहर तैं आतें एं उसनै बड़े बेटे तैं कह कै दोनूं भाइयों को न्यारा करवा दिया। रामदेई बड़े के साथ अर रामचंद छोटे के साथ रहण लाग ग्या। बेरा ना कड़ै, कितनी दूर बसे दो खानदानों को, दो दिलों को जोडऩे वाली गूठी ने पति-पत्नी तक का बंटवारा करा दिया था।

रामदेई उसूलां की पक्की, काण कायदे आळी औरत थी। वा गळी में भी कदे घूंघट खोल कै ना लिकड़ी, बलके वा तो खाली चपाड़ आगे कै भी घूंघट काढ़ कै चाल्या करती। पूरे गाम मैं उसका मान-सम्मान था। या बात और थी अक उम्र के आखरी दौर में उसके अपणा ने ए उस तैं धोखा दिया तै वा टूट बिखरगी। बेटां की रूखाई, बदसलूकी लुगाई, सह भी ले पर अपणा मर्द ए इसा करै तै वा बेचारी किसनै दोष दे? फेर बहू तै पराया खून ठहरी।

इस हादसे के बाद, डेढ़ साल में ए रामदेई दुनिया नै अलविदा कहगी। रामचंद के दु:ख का कोए ठिकाणा ना था। वो खुद नै हालात तैं मजबूर अर ठगा सा महसूस कर रहा था, और सारा दिन बैठक में एकला बैठा हुक्का गुडग़ुड़ाए जाता।

रामदेई चाहे उसतैं बौलै ना थी, पर वो जब जी करता, बड़े बेटे के घरां जाकै उसके हाथ की बणी चाय पीकै ए राजी हो लेता क्योंकि रामदेई का होणा ए उसकी खातर बड़ा सहारा था। ईब जब रामदेई भगवान नै प्यारी हो गी तै रामचंद की भी जीण की इच्छा लगभग खत्म हो गी थी। पर चाहणे से तो ना मौत मिल्यै, ना जिन्दगी। इन्है विचारा मैं होक्का कब ठंडा हो ग्या, बेरा ए ना पाट्या। रामचंद नै फेर तलब हुई तै वो चिलम उठाकै टूटे से पायां, होक्का भरण चाल पडय़ा। हारे कै धोरै बैठ कै उसनै चिलम की राख झाड़ कै तकबाकू जमाया, अर आग धरण खातर अंगारा तोडऩ लाग्या, तै उसनै लाग्या जणूं चिमटी किसे धातु तैं टकराई हो। उसने फेर चिमटी मारी तो फेर वाए आवाज आई। इस पै रामचंद ने अंगारा, चिमटी तैं तोड़-तोड़ कै बिखरा दिया, तै उसके सामी टूटे अंगारे के टुकड़ां के बीच एक गूठी पड़ी थी, वाए गूठी जो उसनै देशराज की बहू अपनाण खातर सुनार तैं बणवाई थी। जो गोसे पाथती हाणा कुंतल की आंगळी तै लिकडग़ी थी।

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- आशा खत्री 'लता'

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